Wednesday, September 3, 2008

Does the Media Care?


میڈیا کی سماجی ذمیداریاں

جمعرات کو دہلی کے جامعہ ملیہ اسلامیہ میں بی بی سی ورلڈ سروس ٹرسٹ کے تعاون سے ایک روزہ سیمنار کا انعقاد ہوا جس میں ہندوستان کے مشہور تجزیہ نگار اور صحافیوں نے شرکت کیا۔ اس سیمنار میں ہندوستانی میڈیا میں سماجی مسائل کی پیش کش پر بحث کی گئی اور اس بات پر بھی بحث ہوئی کہ آیا ہندوستانی میڈیا سلبریٹیز اور جرم کے پیچھے بھاگ رہا ہے۔

تہلکہ کے مدیر ترون تیج پال نے کہا کہ یہ ایک حقیقت ہے کہ صحافی تمام تر پریولج کے با وجود ایمانداری کے ساتھ اپنی ذمے داریاں نبھانے میں ناکام رہے ہیں۔ یہ بات ٹیلویژن پر زیادہ صادق آتی ہے۔ انہوں نے کہا کہ میڈیا بہر طور مارکٹ فورسز کے سامنے گھٹنے ٹیک چکا ہے۔

ہارڈ نیوز کے ایڈیٹر ان چارج امت سین گپتا نے کہا کہ لوگوں کو جو پیش کیا جاۓگا لوگ وہی دیکھیں گے اور یہ ذمے داری ذرائع ابلاغ پر آتی ہے کہ وہ کیا پیش کرنا چاہتے ہیں۔ انہوں نے یہ بھی کہا کہ ٹی آر پی محض دھوکہ ہے۔ بازار کی پیداوار ہے۔ کون یہ وثوق کے ساتھ کہ سکتا ہے کہ عوام کیا دیکھنا چاہتی ہے۔ سماجی مسائل سےمنھ موڑنے کے یہ سب جھوٹے بہانے ہیں۔

کالم نگار اور صحافی سعید نقوی نے کہا کہ خبروں کی پیش کش میں بھی ہماری ترجیحات بدل چکی ہیں۔ انہوں نے کہا کہ اعلی صحافت کا ایک نمونہ وہ تھا جب سیئرا لیون میں گولیوں کی بوچھار کے دوران یک بیک خاموشی طاری ہو جاتی ہے، بندوق اور توپوں کے مہانے آگ اگلنا بند کر دیتے ہیں کیونکہ بی بی سی سننے کا وقت ہو جاتا ہے اور آج کشمیر جل رہا ہے لیکن وہاں ایک بھی صحافی جانے کو تیار نہیں ہے ہاں فیشن شو میں ان کی دلچسپی ضرور ہے۔

نامور صحافی پریم شنکر جھا نے امت سین گپتا سے اتفاق کرتے ہوۓ کہا کہ ہم اب فیلڈ میں جانے سے کتراتے ہیں اور سرکاری موقف کو بیان کرنے میں عافیت سمجھتے ہیں۔ ہم سب جانتے ہیں کہ خبریں کس طرح بنا‏ئی جاتی ہیں اور کس طرح دبائی جاتی ہیں۔ انہوں نے کہا کہ ایک جانب جموں کے مظاہرین پر ربر کی گولیاں چلائی جاتی ہیں تو دوسری جانب سری نگر کے مظاہرین پر اصل گولیاں داغی جاتی ہیں لیکن کہیں بھی اس کا اظہار نہیں ملتا ہے۔
اس سیمنار میں ترون تیج پال نے مانا کہ مسلمانوں کے خلاف ایک قسم کا تعصب ہے جسے وہ پہلے نہیں مانتے تھے۔ اس سیمنار میں کافی اعدادو شمار بھی پیش کیے گۓ تاکہ ہندوستان میں سماجی مسائل پر میڈیا کے رول کا جائزہ لیا جا سکے۔

Ahmad Faraz: The death of a wordsmith

شہر سخن کا سخنور نہیں رہا

اردو کے شاعروں میں فیض احمد فیض کے بعد اگر کسی کو عالمی سطح پر غیر معمولی شہرت ملی تو وہ احمد شاہ فراز ہیں۔ ان کے انتقال پر اردو دنیا سوگوار ہے۔ اردو شاعری کو نئی مقبولیت سے روشناس کرانے میں احمد فراز کی خدمات کا اعتراف کرتے ہوۓ ہندوستان کے تمام گوشوں میں ایک سوگوار ماحول ہے گویا شہر سخن کا ‎سخنور نہیں رہا۔

ہندوستان کے مشہور شاعر پروفیسر شہریار نے احمد فراز کو دور حاضر کے سب سے بڑے ترقی پسند شاعر کے طور پر یاد کیا جن کے یہاں رومانیت اور ترقی پسندی کا حسین امتزاج موجود ہے۔

احمد فراز کو ہندو پاک دوستی کی ایک اہم کڑی کے طور پر بھی یاد کیا گیا۔ ہندوستان کے کسی بھی مشاعرے میں ان کی شرکت مشاعرے کی کامیابی کی دلیل ہوتے تھے۔ ایک بار ہندوستانی فلم کے نہایت سنجیدہ اداکار فاروق شیخ نے اپنا ممبئی کا سفر اس وقت ملتوی کردیا جب انہیں یہ پتہ چلا کہ آج فراز صاحب جامعہ ملیہ اسلامیہ میں اپنے کلام پیش کر رہے ہیں۔

اردو ادب کے مدیر اور جواہر لعل نہرو یونیورسٹی کے سابق استاد ڈاکٹر اسلم پرویز نے کہا کہ وہ عوام اور خواص دونوں طبقوں میں بے انتہا مقبول تھے اور بہت کم ایسے اہل ذوق ہوں گے جن کے ذاتی کتب خانوں میں احمد فراز کا کوئی مجموعہ کلام موجود نہ ہو۔

ہندوستان کے مختلف علمی ادبی اداروں اور ادباء شعراء کی جانب سے لگاتار تعزیتی مجلسوں کا اہتمام کیا جا رہا ہے۔ غالب انسٹی ٹیوٹ کے سکریٹری اور جے این یو کے سابق استاد پروفیسر صدیق الرحمن قدوئی نے فرا‌‌ز کی وفات پر گہرے افسوس کا اظہار کرتے ہوۓ کہا کہ ان کی موت سے اردو شاعری کے ایک بڑے دور کا خاتمہ ہو گیا جس میں فیض، ساحر، کیفی اور سردار جیسے بڑے شعراء تھے

Sunday, July 20, 2008

Ghalib captures 1857

1857 की कहानी मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़बानी

अनुवाद करना तो दूर की बात है एक शायर दूसरे शायर की सराहना भी मुश्किल से ही करता हैं. लेकिन मश्हूर समकालीन शायर मख़मूर सईदी ने उर्दू के सबसे बड़े शायर ग़ालिब की किताब दस्तंबू और उनके पत्रों के हवाले से 1857 की कहानी को ब्यान किया है. 90 पृष्ठ की इस किताब में उन्होंने 18 पृष्ठ की भुमिका भी लिखी है जिसमें उन्होंने दस्तंबू के हवाले से ग़ालिब पर की जाने वाली आलोचनाओं का जवाब और जवाज़ (औचित्य) पेश किया है.

इस किताब के तीन भाग हैं एक में भुमिका है दूसरा भाग ग़ालिब कि किताब दस्तंबू का अनुवाद है और तीसरा भाग ग़ालिब के वे पत्र हैं जो उन्होंने अपने जानने वालों को लिखे हैं. भुमिका में मख़्मूर सईदी ने लिखा है :

दस्तंबू में लिखी कुछ घटनाओं के आधार पर कुछ लोगों ने ग़ालिब पर अंग्रेज़-दोस्ती का इल्ज़ाम लगाया है लेकिन जिस चीज़ को लोगों ने अंग्रेज़-दोस्ती का नाम दिया है वह दरअसल मिरज़ा ग़ालिब की इंसान-दोस्ती थी. बाग़ी भड़के हुए थे इस लिए बहुत से बेगुनाह अंग्रेज़ मर्द औरतें भी उनके ग़ुस्से का निशाना बने. मिर्ज़ा ग़ालिब ने उन बेगुनाहों के मारे जाने पर दुख प्रकट किया लेकिन उन्होंने उस दुख पर भी परदा नहीं डाला जो अंग्रेज़ों की तरफ़ से बेक़सूर हिंदुस्तानी नागरिकों पर ढ़ाए गए.

अगर ग़ालिब की किताब को देखें तो यह साफ़ हो जाता है कि उन्होंने कहीं कहीं बात छुपाई भी है और कहीं कहीं झूठ भी बोल दिया है. मिसाल के तौर पर ग़ालिब ने लिखा है कि उनका भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ पांच दिन बुख़ार में रहने के बाद मर गया लेकिन मख़्मूर सईदी का कहना है कि वे अंग्रेज़ों की गोली का शिकार हुए थे.

ग़ालिब की किताब ख़ुदा की तारीफ़ से शुरू हुई है और इसमें बग़ावत को बेकार साबित करने की कोशिश है और नक्षत्रों के एक दूसरे के घरों में प्रवेश कर जाने को इस उथल-पुथल का कारण माना है. लेकिन वह लिखते हैं शुक्र और वृहस्पति को लाभ पहुंचाने और मंगल और शनि को नुक़सान पहुंचाने पर अगर थोड़ा मोड़ा अधिकार हो तो हो लेकिन ज्ञानी अच्छी तरह जानता पहचानता है कि बरबादी और बरकत किसकी तरफ़ से हैं.

11 मई 1857 से 31 जुलाई 1858 की घटनाओं पर आधारित इस किताब में ग़ालिब ने अपने गद्य का झंडा गाड़ने का दावा भी किया है और कहा है कि यह किताब पुरानी फ़ारसी में लिखी गई है और इसमें एक शब्द भी अरबी भाषा का नहीं आने दिया गया है सिवाए लोगों के नामों के क्योंकि उन को बदला नहीं जा सकता था. उन्होंने इसका नाम दस्तंबू इस लिए रखा है कि यह लोगों में हाथों हाथ ली जाएगी जैसा कि उस ज़माने में बड़े लोग ताज़गी और ख़ुशबू के लिए दस्तंबू अपने हाथों में रखा करते थे.

ग़ालिब के नज़दीक पीर यानी सोमवार का दिन बड़ा मनहूस है, बाग़ी सोमवार को ही दिल्ली में दाख़िल हुए थे, सोमवार के दिन ही उनकी हार शुरू हुई थी, जब गोरे सिपाही ग़ालिब को पकड़ कर ले गए वह भी सोमवार था और फिर जिस दिन ग़ालिब के भाई का देहांत हुआ वह भी सोमवार था. ग़ालिब ने इस बारे में लिखा है :

19 अक्तूबर को वही सोमवार का दिन जिसका नाम सपताह के दिनों कि सूचि में से काट देना चाहिए एक सांस में आग उगलने वाले सांप की तरह दुनिया को निगल गया

ग़ालिब ने अपने भाई की मौत के बारे में चाहे झूठ ही बोला हो लेकिन उन्होंने अंग्रेज़ अफ़्सरों और फ़ौजियों की रक्तपाति प्रतिकृया पर पर्दा नहीं डाला और साफ़ साफ़ लिख गए :

शाहज़ादों के बारे में इससे अधिक नहीं कहा जा सकता कि कुछ बंदूक़ की गोली का ज़ख़्म खा कर मौत के मुंह में चले गए और कुछ की आत्मा फांसी के फंदे में ठिठुर कर रह गई. कुछ क़ैदख़ानों में हैं और कुछ दर-बदर भटक रहे हैं. बूढ़े कमज़ोर बादशाह पर जो क़िले में नज़र बंद हैं मुक़दमा चल रहा है. झझ्झर और बल्लभगढ़ के ज़मीनदारों और फ़र्रुख़ाबाद के हाकिमों को अलग-अलग विभिन्न दिनों में फांसी पर लटका दिया गया. इस प्रकार हलाक किया गया कि कोई नहीं कह सकता कि ख़ून बहाया गया.... जानना चाहिए कि इस शहर में क़ैदख़ाना शहर से बाहर है और हवालात शहर के अंदर, उन दोनों जगहों में इस क़दर आदमियों को जमा कर दिया गया कि मालू पड़ता है कि एक दूसरे में समाए हुए हैं. उन दोनों क़ैदख़ानों के उन क़ैदियों की संख्या को जिन्हें विभिन्न समय में फांसी दी गई यमराज ही जानता है...

ग़ालिब को मालूम था कि उनकी यह किताब छप सकती है इस लिए उन्होंने इस में मसलेहत से काम लिया और कुछ चीज़ें छिपा गए. लेकिन 1857 के आख़री दिनों में उन्होंने जो पत्र लिखे उससे इसकी भरपाई हो जाती है. यानी यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.

जब उनके ख़त को छापने की बात आई तो ग़ालिब ने यह कहते हुए हिचकिचाहट दिखाई कि इस में उन्होंने अच्छी भाषा नहीं लिखी है और यह कि वह बस यूं ही हैं हालांकि अपने एक ख़त में उन्होंने दावा किया था कि उन्होंने ख़त लिखने कि उस शैली का अविष्कार किया है जिस में पत्र लेखन को संवाद बना दिया है.

इस किताब में 1857 की घटनाओं के बारे में लिखे ग़ालिब के पत्रों को शामिल किया गया है जिसमें दिल्ली की बर्बादी का अधिक वर्णन. महेश दास जी ने शहर में मुसलमानो के लिए जो किया उसके बारे में मिर्ज़ा ग़ालिब अपने एक पत्र में लिखते हैं.

इंसाफ़ से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता और जो देखा बिन कहे रहा नहीं जा सकता, इस नेक तबियत ने शहर में मुसलमानों के पुनर्वास के सिलसिले में कोई कसर नहीं उठा रखी.

दिल्ली की बर्बादी पर ग़ालिब के पत्रों के कुछ अंश :

मियां हक़ीक़ते-हाल इस से ज़्यादा नहीं कि अब तक जीता हूं. भाग नहीं गया. निकाला नहीं गया. लुटा नहीं. किसी मुहकमे में बुलाया नहीं गया. पूछ-ताछ नहीं हुई. आइंदा देखिए क्या होता है. (21 दिसंबर 1857)

इंसाफ़ करो लिखूं तो क्या लिखूं ? कुछ लिख सकता हूं या लिखने के क़ाबिल है ? तुमने जो मुझको लिखा तो क्या लिखा, और अब जो लिखता हूं तो क्या लिखता हूं ? बस इतना ही है कि अब तक हम तुम जीते हैं. ज़्यादा इससे न तुम लिखोगे न मैं लिखुंगा. (26 दिसंबर 1857)

अपने मकान में बैठा हूं. दरवाज़े से बाहर नहीं निकल सकता, सवार होना और कहीं जाना तो बड़ी बात है. रहा ये कि कोई मेरे पास आवे, शहर में है कौन जो आवे. घर के घर बे-चिराग़ पड़े हैं. मुजरिम सियासत पाते जाते हैं....

मीर मेहदी के नाम लिखे ख़त में ग़ालिब लिखते हैं. क़ारी का कुआं बंद हो गया. लाल डुगी के कुएं एक साथ खारे हो गए. ख़ैर खारा पानी ही पीते, गर्म पानी निकलता है. परसों मैं सवार होकर कुएं का हाल मालूम करने गया था. जामा मस्जिद से राज घाट के दरवाज़े तक बे-मुबालग़ा (बिना अतिश्योक्ति) एक ब्याबान रेगिस्तान है... याद करो मिर्ज़ा गौहर के बाग़ीचे के उस तरफ़ को बांस गड़ा था अब वह बाग़ीचे के सेहन के बराबर हो गया है.... पंजाबी कटरा, धोबी कटरा, रामजी गंज, सआदत ख़ां का कटरा, जरनैल की बीबी की हवेली, रामजी दास गोदाम वाले के मकानात, साहब राम का बाग़ और हवेली उनमें से किसी का पता नहीं चलता. संक्षेप में शहर रेगिस्तान हो गया.... ऐ बन्दा-ए-ख़ुदा उर्दू बाज़ार न रहा, उर्दू कहां, दिल्ली कहां? वल्लाह अब शहर नहीं है, कैम्प है, छावनी है. न क़िला, न शहर, न बाज़ार, न नहर.

एक और ख़त में लिखते हैं. भाई क्या पूछते हो, क्या लिखूं ? दिल्ली की हस्ती कई जश्नों पर थी. क़िले, चांदनी चौक, हर रोज़ का बाज़ार जामा मस्जिद, हर हफ़्ते सैर जमना के पुल की, हर साल मेला फूल वालों का, ये पांचों बातें अब नहीं. फिर कहो दिल्ली कहां....?”

इन सब को देख कर यह विडंबना सामने आती है कि 1857 की घटना पर ग़ालिब जैसे महान कवि के हाथों दिल्ली का ब्यान छपा लेकिन उस भाषा में नहीं जो आज के आम लोगों की भाषा है. अगर नेश्नल बुक टरस्ट इसे हिंदी में भी प्रकाशित करे तो यह भारत के पहले स्वतंत्राता संग्राम की 150वीं बरसी पर आने वाली पीढ़ी के लिए एक अनमोल तोहफ़ा होगा.

अंत में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि मख़्मूर सईदी ने अपने अनुवाद और ग़ालिब के पत्रों को एक कड़ी में सजाने में अपने हुनर का जौहर दिखाया है जो कि एक शायर ही कर सकता था.

1857 की कहानी मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़बानी
(दस्तंबू और ग़ालिब के ख़तूत के हवाले से)
लेखक मख़्मूर सईदी
प्रकाशक नेश्नल बुक टरस्ट
मूल्य 35 रू.

1857 and national newspapers

1857 की क्रांति और देसी अख़बार

आज भारत के पहले स्वतंत्रा संग्राम के 150 वर्ष बाद उस ज़माने के अख़बारों की कुछ एक प्रतियां राष्ट्रीय संग्राहाल में मिल जाती हैं जिनकी आज की पत्रकारिता के मुक़ाबले कोई हैसियत नहीं लेकिन उनसे सरकार आज से कहीं ज़्यादा घबराती थी और उनके मालिकों और संपादकों पर तरह तरह के संकट मंडलाते रहते थे.

चुनानचे दिल्ली से निकलने वाले पहले अख़बार दिल्ली अख़बार, जिसे बाद में दिल्ली उर्दू अख़बार कहा गया और फिर बहादुरशाह ज़फ़र के नाम पर इसका नाम अख़बारुज़्ज़फ़र रख दिया गया उसके संपादक मौलवी मोहम्मद बाक़र को ग़द्दारी के जुर्म में फांसी दे दी गई, उनके बेटे और उर्दू के महान लेखक मोहम्मद हुसैन आज़ाद को भी क़ैद सुनाई गई लेकिन वे किसी तरह अपनी जान बचाकर भागे. भागते समय उनके साथ कुल जमा पूंजी उनके उस्ताद और प्रसिद्ध शायर ज़ौक़ का दीवान था.

इसी प्रकार सय्यद जमीलुद्दीन के संपादन में निकलने वाले सादिक़ुल-अख़बार ने क्रांतिकारियों की सराहना की, उनके विरुद्ध बग़ावत का मुक़दमा चला और उन्हें तीन साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई. दूरबीन और गुलशने-नौबहार अख़बारों पर भी मक़दमे चलाए गए और प्रेस को ज़ब्त कर लिया गया

जहां 1857 की क्रांति के कई और कारण थे वहीं इस में अख़बारों की भी अहम भूमिका रही है हालांकि इतिहासकारों ने हमेशा इसकी अंदेखी की.

भारतीय साहित्य एवं संस्कृति में अत्यधिक रूची रखने वाले फ़्रांसीसी लेखक ग्रेसीन द तासी ने 1857 के विद्रोह का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि उन अशुभ कारतूसों के वित्रण के अवसर पर हिंदुस्तानी अख़बारों ने जो पहले से हि भड़काने में लगे हुए थे हिंदुस्तानियों को कारतूसों को हाथ लगाने से इनकार करने के लिए तय्यार किया और उन्हें यह विश्वास दिलाया कि अंग्रेज़ हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाना चाहते हैं.

इसी संदर्भ में अंग्रेज़ी में निकलने वाले अख़बार लाहोर क्रॉनिकिल में जूलाई 11, 1857 में यह लिखा गया कि भारतीय भाषा में निकलने वाले अख़बार ग़द्दारी और विघटनकारी गतिविधियों में शामिल हैं.

मारग्रेटा बार्न्स ने अपनी किताब द इंडियन प्रेस में ग़दर और उसके बाद वाले अध्याय में लिखा है कि हाथों से लिखे जाने वाले ये अख़बार बहुत ही संवेदनशील और उत्तेजक हैं और इनका क्षेत्र भी बहुत बड़ा है.

लाहोर से निकलने वाले अंग्रेज़ी के अख़बार द पंजाबी के अंग्रेज़ संपादक ने 28 मार्च 1857 को लिखा कि बहुत से देसी अख़बार हमारी सेना के देसी सैनिकों में बांटे गए हैं. इसमें से एक देसी अख़बार की ओर हमारा ध्यान दिलाया गया जो हमारे देसी सैनिक पढ़ते हैं और उसमें बैरकपूर के हंगामों की ख़बरें इस प्रकार प्रकाशित हैं जिन से यहां के सैनिकों में आक्रोश पैदा होने की आशंका होती है.

एक मौक़े पर लार्ड कैनिंग ने कहा था, देसी अख़बारों ने समाचार देने की आड़ में देसी लोगों में बहुत ही हिम्मत के साथ विद्रोह की भावना भर दी है. यह काम बहुत चालाकी के साथ किया गया है.

चुनांनचे, हम देखते हैं कि 1835 ई. में भारतीय भाषा में सिर्फ़ छे अख़बार निकलते थे जो 1850 में बढ़कर 28 हो गए और 1853 तक यह संख्या 37 तक पहुंच गई. 1854 में उत्तरी भारत से ही 34 अख़बार निकलते थे, आगरा से 7, बनारस से 7, दिल्ली से छे, मेरठ से दो, लाहोर से दो, मुलतान से दो, बरेली, सरधना, कानपूर, मिर्ज़ापूर, इंदौर, लुधियाना, भरतपूर, अमृतसर, मुलतान और और सियालकोट से एक एक अख़बार निकलते थे.

उसी ज़माने में कलकत्ता से 16 अख़बार निकलते थे जिन्में पांच उर्दू और फ़ारसी भाषा में थे, उर्दू सबसे ज़्यादा लिखी पढ़ी जाने वाली भाषा थी लेकिन 1857 की क्रांति के दौरान सरकारी अख़बारों को छोड़कर बाक़ी सारे अख़बार बंद करवा दिए गए.

क्रांतिकारी पत्रकारिता का इतिहास


क्रांतिकारी पत्रकारिता पर लिखते हुए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की यह पंक्तियां सहसा याद आ जाती हैं:

निसार मैं तरी गलियों के ऐ वतन कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले जिस्मो-जां बचा के चले

हालांकि 1857 की क्रांति के समय भारतीय अख़बारों की उमर कोई ज़्यादा नहीं थी लेकिन इसके छोटे से इतिहास को देखा जाए तो यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इसके मिज़ाज में विद्रोह शुरू से ही था.

भारत में अंग्रेज़ पत्रकारों ने ही इसकी नींव रखी और ईस्ट इंडिया कंपनी के ज़ुल्म, अन्याय और लूट-खसोट का विरोध किया. कम्पनी के एक कर्मचारी विलियम बोल्टस ने सबसे पहले कम्पनी बहादुर के अधिकारियों की हेरा-फेरी, ज़ुल्म और अन्याय का भांडा फूड़ने के लिए सितम्बर 1766 को कलकत्ता के काउंसिल हाउस के गेट पर एक धोषणापत्र चिपकाया जिससे भयभीत होकर उच्च अधिकारियों ने 18 अप्रैल 1768 में उन्हें देश छोड़ने का आदेश दिया. वह वहां भी चुप नहीं बैठे और पलासी युद्ध के बाद भारत में कम्पनी के अत्याचारों को दिखाने के लिए कंसीड्रेशन ऑन इंडियन अफ़ेयर्स नामी किताब लिखी.

26 जनवरी 1770 में जब जेम्स आगस्तस हिक्की ने भारत का सबसे पहला अख़बार बंगाल गज़ट ऑफ़ ऐडवरटाईज़र प्रकाशित करना शुरू किया तो उन्हें प्रारंभ से ही गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के ग़ुस्से का शिकार होना पड़ा. अपनी साफ़गोई के लिए उन्हें न सिर्फ़ क़ैद झेलनी पड़ी बल्कि उन्हें देश निकाला भी मिला. इसके बाद पत्रकारों को देश से निकाल बाहर करने का एक सिलसिला चल निकला.

बंगाल जरनल और इंडियन वर्लड के मालिक और संपादक विलियम डॉन को भी देश निकाला मिला, उसके बाद अंग्रेज़ी के अख़बार बंगाल हरकारो के संपादक चार्लस मैकलीन को भी अंग्रेज़ विरुद्ध गतिविधियों के लिए देश-निकाला मिला लेकिन उन्होंने इंग्लैंड पहुंच कर लॉर्ड वैलेज़ली के विरूद्ध ऐसा अभियान चलाया कि लार्ड वैलेज़ली को अपने पद से इस्तेफ़ा देना पड़ा.

उसके बाद एशियाटिक मिरर के संपादक को कंपनी और देसी राज्यों की तुलना करने के इल्ज़ाम में 1799 में देश-निकाला मिला. इसी दौरान 19वीं शताब्दी के आरंभ में कलकत्ता जरनल के संपादक जेम्स सिल्क बकिंघम, बंबई गज़ट के संपादक फ़ेयर और कल्कत्ता जरनल के दूसरे संपादक संडेज़ को भी देश-निकाला मिला.

इसी परिदृष्य में 14 मार्च 1823 में भारत में पहला प्रेस आर्डीनेन्स जारी किया गया जिस के ख़िलाफ़ राजा राम मोहन राय ने अपने अख़बार मिरातुल-अख़बार में न सिर्फ़ इसकी भर्त्सना की बलकि सुप्रीम कोर्ट में इसके ख़िलाफ़ अपील भी की जिसे ख़ारिज कर दिया गया. फिर उन्होंने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक अपील बर्तानिया के बादशाह के नाम लिख भेजा जिसमें कहा गया था कि इस आर्डीनेन्स को फ़ौरन ख़त्म किया जाए वरना हिंदुस्तान की प्रजा अत्याचारी शासक के हाथों तबाह हो जाएगी. उनकी यह अपील प्रिवी काउंसिस से भी ख़ारिज कर दी गई जिसके विरोध में उन्होंने अपने अख़बार मिरातुल-अख़बार को बंद करने का फ़ैसला किया.

यही वह परंपरा थी जो 1857 में भी अपने काम कर रही थी और दिल्ली से निकलने वाले सादिक़ुल अख़बार ने बग़ावत के दौरान दिल्ली की ख़बर को इस प्रकार प्रकाशित किया.

कुछ अहले रोम ने किया न शाहे-रूस ने
जो कुछ किया नसारा से सो कारतूस ने

Friday, July 18, 2008

Allahabad: The Confluence of 1857


अलाहाबाद स्वतंत्रा संग्राम का भी संगम रहा

भारत के स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल 10 मई को मेरठ से बजा और समय के साथ साथ उसकी गूंज और भी जगह से सुनाई देने लगी, अलाहाबाद में यह बिगुल 6 जून को फूंका गया.

उस समय यहां अंग्रेज़ सिपाही नहीं थे कुछ गोरे अफ़सरों के नेतृत्व में छठी देसी पैदल पलटन और फ़ीरोज़ पूर की पांच कंपनियां मौजूद थीं और क़िले और असलहे-ख़ाने की सुरक्षा के लिए फ़िरोज़पूर रेजिमेन्ट के 400 सिख सिपाही और देसी पलटन के 80 जवान तैनात थे.

बग़ावत की ख़बरों से चिंतित होकर अंग्रेज़ अफ़सरों ने 60 पेंशन पाने वाले गोरे तोपचियों और 200 सिख सिपाहियों को क़िले के अंदर बुला लिया.

सुन्दर लाल ने अपनी किताब भारत में अंग्रेज़ी राज्य में लिखा है कि अगर क़िले के सिख उस समय मुजाहिदों का साथ दे जाते तो आधे घंटे के अंदर इलाहाबाद का क़िला और अंदर का सारा सामान मुजाहिदों के हाथों में आ जाता, मगर ऐसा न हुआ और अंग्रेज़ी झंडा इलाहाबाद क़िले पर लहराता रहा.

इलाहाबाद के संग्राम के सूरमा मौलवी लियाक़त अली अपनी बस्ती से 7 जून को इलाहाबाद पहुंच गए और ख़ुसरो बाग़ को उन्होंने अपना मुख्याल्य बनाया. उसी रोज़ दरबार लगा जिसमें 101 तोपों की सलामी दी गई, 21 तोपों की सलामी से मौली लियाक़त अली के नेतृत्व का एलान किया गया.
मौलीवी लियाक़त अली जानते थे कि अंग्रज़ आसानी से हार नहीं मानेंगे इस लिए वह उस रात की हार के बाद अपनी ताक़त बढ़ाने में लग गए और जल्द ही उनकी फ़ौज में बड़ी संख्या में वॉलनटियर भरती हो गए.

Bollywood: May and Music

مئی اور موسیقی

انگریزی کے مشہور ادیب، شاعر اور ناقد ٹی ایس ایلیٹ نے کہا تھا کہ اپریل سب سے ظالم مہینہ ہے لیکن ہندوستانی موسیقی کے حوالے سے اگر گز‎شتہ دس برسوں کا جا‎ئزہ لیا جاۓ تو یہ بجا طور پر کہا جا سکتا ہے کہ مئی بالی ووڈ کی موسیقی کے لیے جانکاہ مہینہ ثابت ہوا ہے۔

پانچ مئی 2006کو 'امر'، 'انداز'، 'دیدار'، 'آن'، 'بیجو باورا'، 'گنگا جمنا'، 'مدر انڈیا'، رام اور شیام'، 'میرے محبوب'، 'کوہ نور' اور 'مغل اعظم' جیسی کامیاب ترین فلموں کے موسیقار نوشاد نے محل اداس اور گلیاں سونی چھوڑ گۓ۔ بہر حال ان کے چاہنے والوں نے ممبئی میں ان کی یاد میں ایک سڑک کارٹر روڈ کا نام ان کے نام پرنوشاد علی روڈ رکھ کر اپنی محبت اور عقیدت کا اظہار کیا۔

نو مئی 1998 میں گا‏ئیکی کی دنیا کی مخملی آواز ہمیشہ کے لیۓ خاموش ہو گئی یعنی طلعت محمود نے اپنے چاہنے والوں کو بے قرار کر دیااور اپنی جھلک دکھا کے وہ پردوں میں چھپ گۓ۔ 'بارہ دری'، انہونی'، 'ترانہ'، ٹیکسی ڈرائیور' اور 'داغ' جیسی فلموں کے لیۓ مقبول ترین گیت کو آواز دیا۔ جائیں تو جائیں کہاں جیسے گانے آج بھی لوگوں کو یاد ہیں۔

اسی سال 28 مئی کو لکشمی کانت کے سنگیت کا تار ٹوٹ گیا اور وہ ‎‎پیارے لال کو تنہا کر گۓ۔ 'دوستی'، 'ملن'، 'ہاتھی میرے ساتھی'، 'دو راستے'، 'شور' اور 'بابی' جیسی فلموں کے لیۓ موسیقی دینے والے سنگیت کار نے آواز سے ناتا توڑ لیا۔

10 مئی2002 کو شاعر ادیب کیفی اعظمی نے اپنے مقبول ترین گیت کی صورت اب تمہارے حوالے وطن ساتھیو کہا اور اس دنیا سے رخصت ہو گۓ۔ انہوں نے 'انوپما'، 'حقیقت'، 'آخری خط'، 'کاغذ کے پھول'، اور 'ارتھ' جیسی فلموں کے لیے گیت لکھے۔ ان کی چھٹی برسی پر اس سال ان کا پورا خاندان جمع ہوا اور اپنی محبت کا اظہار کیفیات نامی البم کے اجراء کے ساتھ کیا۔ اس موقعے پر شبانہ اعظمی نے کہا کہ یہ اس لیے یادگار ہے کہ اس میں ابّا کے بہترین کلام انہی کی آواز میں پیش کیۓ گۓ ہیں۔

250 فلموں کے لیے گیت لکھنے والے اور دادا صاحب پھالکے اور اقبال سمّان نے نوازے جانے والے شاعر اور نغمہ نگار مجروح سلطانپوری نے 24 مئی 2000میں اس جہان کو الوداع کہا۔ انہوں نے اپنے پچپن سالہ فلمی کیریئر میں کئی سنگیت کار اور ہدایت کاروں کا کیریئر بنا دیا۔ انھوں نے 'دوستی'، 'انداز'، 'ممتا'، 'پھر وہی دل لایا ہوں'، 'سی آئی ڈی'، 'تم سا نہیں دیکھا'، 'پاکیزہ'، 'ابھیمان'، خاموشی' اور 'قیامت سے قیامت تک' جیسی ہٹ فلموں کے لیۓ گیت لکھے۔ ان سب کے باوجود آج ان کے ہی علاقے میں ان کا یاد کرنے والا کوئی نہیں۔

'مر گۓ ہم تو زمانے نے بہت یاد کیا' لکھتے ہوۓ انہوں نے کبھی نہیں سوچا ہوگا کہ ان کے ہمعصر ساحر لدھیانوی نے کیا خوب کہا تھا ' مصروف زمانہ میرے لیے کیوں وقت اپنا برباد کرے'۔

Wednesday, July 9, 2008

Urdu in Varansi

بنارس ہندو یونیورسٹی میں اردو

گزشتہ ماہ بنارس ہندو یونیورسٹی میں اردو ناول کے حوالے سے دو روزہ سیمنار کا افتتاح کرتے ہوۓ‎ وائس چانسلر ایس پی اوجھا نے اردو کے مشترکہ قومی کردار کو تسلیم کیا اور اعتراف کیا کہ یہ دلوں کو جو‌ڑنے والی زبان ہے جس میں عشق و حسن کےبیان کے ساتھ ساتھ ہماری مٹی کی خوشبو بھی ہے۔

اردو ناول کل اور آج کے عنوان کے تحت اس دو روزہ سیمنار میں ملک بھر سے اساتذہ اور رسرچ اسکالروں نے شرکت کی۔ اردوکے ممتاز فکشن نگار پروفیسر حسین الحق نے اپنے کلیدی خطبے میں حوالے کے ساتھ کہا کہ اردو ناول اپنی طفلی کے زمانے سے ہی سماجی، سیاسی، معاشی اور معاشرتی زندگی کو پیش کرنے کا خوبصورت وسیلہ رہا ہے۔

اس سیمنار کی خاص بات رہی کہ اس میں ناول کے نسوانی پہلو پر کافی زور رہا۔ اگر ایک جانب قر‎‎ۃالعین حیدر کے حوالے سے تقسیم کے کرب پر مقالہ پڑھا گیا تو وہیں ڈاکٹر مشر‌ف علی نے جیلانی بانو کے ناول 'بارش سنگ' کا تجزیاتی مطالعہ پیش کیا۔ اس کے علاوہ ڈپٹی نذیر احمد کے ناولوں کے نسوانی کرداروں پر بھی خاطر خواہ روشنی ڈالی گئی۔

The World of Melody

جہان غزل

ممتاز شاعر کیفی اعظمی اور ملکہ غزل بیگم اختر کی یاد میں انڈیا ہیبیٹیٹ سنٹر میں دو روزہ انٹر نیشنل جہان غزل نے دہلی کی ادبی اور ثقافتی مجلس میں ایک تازہ اضافہ کیا ہے۔

کیفی اعظمی جس طرح اپنے بلند شعری آہنگ کے لیے جانے جاتے ہیں وہیں غزل گائکی میں بیگم اختر کا جادو سر چڑھ کر بولتا اور ان کو ایک ساتھ خراج عقیدت پیش کرنے کا نیا شگوفہ کھلایا حسن آرا ٹرسٹ نے یعنی کلام اور آواز کو باہم ایک کر دیا۔

چودہ اور پندرہ اپریل کی شامیں ان دو معتبر شخصیتوں کے نام رہیں۔ دوسرے دن ایک مشاعرے کا اہتمام بھی کیا گیا جس کی صدارت اردو کے ممتاز شاعر اور لونگ لیجنڈ احمد فراز نے کی۔ اس میں گلزار دہلوی، ماجد دیوبندی، ظہیر زیدی، گوہر رضا، نسیم نیازی اور مزاحیہ شاعر پاپولر میرٹھی نے شرکت کی۔

اگر ایک جانب گلزار دہلوی نے اس شعر پر داد حاصل کی
صاف ہو نیت اگر اور صدق ایماں ہو نصیب
دور کر سکتی نہیں ہم کو حدود ہند وپاک
تو وہیں احمد فراز کے اس شعر نے سامعین کی توجہ حاصل کی
یہ بھی کیا کم ہے کہ دونوں کا بھرم قائم ہے
اس نے بخشش نہیں کی ہم نے گزارش نہیں کی

اس موقعے سے منی بیگم اور انیتا سنگھوی نے اپنی آواز کا جادو جگایا اور سامعین کو محظوظ کیا۔

1857 a play


'اٹھارہ سو ستاون ایک سفرنامہ '

فلم' مغل اعظم' کی سب سے بڑی خصوصیت اس کے مکالمے یعنی اس کی زبان رہی ہے لیکن آج جبکہ ہندوستان سے اس زبان کا استعمال رخصت ہو چکا ہے تب بھی اس کی تازہ رنگین نمائش میں لوگوں کی دلچسپی قابل تعریف رہی۔ جس سے یہ معلوم ہوا کہ اگر فلم واقعی اچھی فلم ہے تو وہ زبان کی حدوں کو عبور کرکے دلوں پر راج کرتی ہے۔

ان دنوں دہلی کے پرانے قلع میں اٹھارہ سو ستاون کے پر آشوب واقعات کو اسٹیج پر پیش کیا جا رہا ہے لیکن تھیٹر کے شائقین اور ناقدین فن نیشنل اسکول آف ڈراما کی اس پیشکش پر زیادہ پرجوش نظر نہیں آۓ۔ وجہ نہ صرف غیر معیاری زبان کا استعمال اور لہجے اور تلفظ ہے بلکہ ملبوسات اور دوسرے حقائق بھی اس پیشکش کی خامیوں کی جانب اشارہ کرتے ہیں۔

نیشنل اسکول آف ڈرامہ یعنی این ایس ڈی نے 'تغلق'، 'رضیہ سلطان' اور 'مہابھوج' یا پھر 'اندھا یگ' کی کامیاب پیشکش سے تاریخی ڈراموں کا جو معیار قائم کیا تھا وہ اٹھارہ سو ستاون کی پیشکش سے اسی طرح رخصت ہوا چاہتا ہے جیسے اٹھارہ سو ستاون کی جدوجہد کے بعد ہندوستان سے دیسی حکومت۔

Parwana Rudaulvi Dead

پروانہ رودولوی نہیں رہے

اردو کےنامور صحافی شاعر اور ادیب پروانہ رودولوی 12 اپریل کو دہلی کے میکس ہسپتال میں انتقال کر گۓاور انہیں حوض رانی کے قبرستان میں سپرد خاک کیا گیا ۔ پس ماندگان میں اہلیہ، بیٹی اور تین بیٹے شامل ہیں۔

پروانہ رودولوی کا شمار ہندوستان کی آزادی کے بعد کی نسل کے ممتاز اردو صحافیوں میں ہوتا ہے۔ در اصل انھیں صحافت کی قدیم روایتوں کا امین کہا جا سکتا ہے جنہوں نے ملک کی تقسیم کے بعد اردو کے قلم کو اٹھاۓ رکھا اورنہایت بے باک انداز میں اپنی بات کہی۔

پروانہ رودولوی کی پیدائش 1931میں نومبر کے مہینے میں ہوئی اور انھوں نے اردو صحافت میں اس وقت قدم رکھا جب اردو کو انتہائی مشکل مرحلہ درپیش تھا۔ ان کی محنت، لگن اور مسلسل کاوشوں کو سراہتے ہو‎ۓ اردو اکادمی اوارڈ براۓ صحافت سے نوازا۔
اس کے علاوہ صحافت اور ادب کے لیۓ انہیں عالمی اردو اوارڈ، افسانہ نگاری کے لیے اتر پردیش اردو اکادمی انعام، میر اکادمی ھنئو کی جانب سے میر قلم انعام، ادبی خدمات کے لیے باباۓ اردو مولوی عبد الحق اوارڈ اور متعد دوسرے انعامات سے نوازا گیا جو بذات خود ان کی گرانقدر خدمات کا اعتراف ہیں۔

ان کی تصانیف میں 'اردو صحافت کا استغاثہ' اور 'ہو بہو' کو کافی مقبولیت ملی۔ اول الذکر جہاں صحافت کا مرقع ہے وہیں آخر الذکر ہمعصر ادیبوں اور شاعروں کے خاکوں پر مبنی ہے۔ اس میں انہوں نے اپنی بیباکی کا مظاہرہ کرتے چند لوگوں کے بارے میں کچھ ایسا لکھ دیا جس نے تلخیاں پید کیں۔

بہر حال انھیں نفیس طبع انسان اور اردو زبان وادب سےگہری وابستگی کے لیے یاد کیا جاۓ گا۔ انہوں نے کانپور سے 'سیاست نو' نامی ایک روزنامہ بھی نکالا جو زیادہ دنوں تک جاری نہ رہ سکا۔ نئی دنیا کے لیے انہوں نے کافی کام کیا اور اپنی مخصوص پہچان چھو‌ڑی۔ انہوں نے تراجم بھی کیۓ، افسانے اور ناول بھی لکھے جن میں 'آزمائش' اور 'ویرانی نہیں جاتی' مقبول ہوئیں۔

European Film Festival

دہلی میں یوروپیئن فلم فسٹیول
بالی ووڈ اور ہالی ووڈ کی ہلچل کے درمیان عالمی فلم میں دلچسپی رکھنے والوں کے لیۓ گزشتہ ہفتہ دہلی میں یوروپیئن فلم فسٹیول کا انعقاد کسی نعمت غیر مترقبہ سے کم نہیں تھا۔ ایک ہفتے تک جاری رہنے والے اس فسٹیول کا انعقاد انڈیا ہیبیٹیٹ سنٹر میں کیا گیا اور اس میں یورپ کے ان ممالک کی فلمیں دکھا‎ئی گئیں جن سے عام طور پر روشنائی کا موقع نہیں مل پاتا ہے۔

اس نمائش کا افتتاح سلووینیا کی فلم 'شارٹ سرکٹ' سے ہوا یہ فلم پچھلے دنوں میونخ فلم فسٹیول میں بھی دکھا‎‏ئی گئی تھی۔ سلووینیا کی یہ فلم اس سال یوروپیئن فلم پروموشن کا بھی حصّہ ہے۔ اس کے علاوہ اس نمائش میں بلجیئم کی فلم 'لانگ ویکنڈ'، آسٹریا کی 'دی ادر سائڈ آف دی برج'، سلوواک ریپبلک کی 'ٹو سلیبلس بیہائنڈ'، جرمنی کی 'یلّا'، آ‏ئرلینڈ کی 'لاسٹ آف دی ہائی کنگس'، برطانیہ کی اسٹیفن فرائی: دی سکرٹ لائف آف اے مینک ڈپریسوو'، چک فلم 'اٹس سپرنگ ان پراگ ایوری ایئر'، ایستونیا ئی فلم 'گولڈن بیچ'، سوئیڈن کی 'کڈس ان دی ہوڈ' اسپین کی فکّی او' اور رومانیا کی 'آکسیڈنٹ' شامل رہیں۔
آٹھ دنوں تک جاری رہنے والے اس وفلم فسٹیول میں دہلی کے ناظرین کو دس سے زیادہ ایسی وفلموں کو دیکھنے کا مو‌قعہ ملا جو عام طور پر یورپ کی میں منعقد ہونے والی فلمی نمائشوں میں ہی دیکھنے کو ملتی ہیں

My Country My Life



مائی کنٹری مائی لائف
ان دنوں حزب اختلاف کے سربراہ اور سابق نائب وزیراعظم لال کرشن اڈوانی کی کتاب جہاں ارباب اختیار میں تنقید کے نشانے پر ہے وہیں علم و ادب کی مجالس میں موضوع بحث ہے۔

یہاں ہمارا موضوع سیاسی سرگرمیوں کا احاطہ کرنا نہیں ہے اور نہ ہی اس پر کانگریس کی سربراہ سونیا گاندھی کے بیان پر روشنی ڈالنا ہے بلکہ اس کتاب سے پیدا ہونے والے چند سوالات آپ کے سامنے پیش کرنا ہے تاکہ یہ اندازہ لگایا جا سکے کہ حزب اختلاف کی سب سے بڑی جماعت بھارتیہ جنتا پاڑٹی کی جانب سے وزیر اعظم کے امیدوار کا اس کتاب سے کیا مقصد ہو سکتا ہے اور ان کی پارٹی کی اس سے کیا توقعات وابستہ ہو‏‏ئی ہیں۔

انتہائی احتیاط کے ساتھ لکھی گئی اس خود نوشت سوانح میں چند ایسے مقامات آئے جھاں یا تو حقیقت سے روگردانی کی گئی یا پھر یادداشت نے اس قدر دغاکیا کہ ابہام کی جگہ تضاد نے لے لی۔
موصوف نے نہ جانے کس عالم محویت میں یہ لکھ دیا کہ انھیں بھارت کے مسافر بردار طیارے کے اغوا کے بعد مسافروں اور طیارہ کی رہا‎ئی کے لیے بھارتی جیل میں قید دہشت گردوں کو رہا کرنے کا علم نہیں تھا حالانکہ اس وقت وہ ہندوستان کے وزیر داخلہ تھے اور اس عہدے کو بھارت میں وزری اعظم کے عہدے کے بعد سب سے زیادہ اہمیت حاصل ہے۔ حد تو یہ ہے کہ انہیں یہ بھی معلوم نہیں تھا کہ اس وقت بھارت میں امریکہ کا سفیر کون تھا۔

تقریبا ایک ہزار صفحات پر مشتمل اس کتاب میں اڈوانی نے تقسیم ملک کے نتیجے میں بھارت آمد، واجپئی سے ملاقات، جن سنگھ کے دن، ایمر جنسی، ایردھیا اور بابری مسجد انہدام ، آگرہ سربراہ کانفرنس، پاکستان کے دورے ، کرگل کی لڑائی، واجپئی سے اپنی رفاقت جیسے متعدد اہم اور دلچسپ سوالوں پرمفصل روشنی ڈالی ہے۔

یہ معاملہ بھی عجیب ہے کہ اس کتاب کے اجراء کےدوران تو کو‎ئی متنازعہ فیہ مسئلہ سامنے نہیں آیا لیکن جب اس کتاب کے مصنف نے اسے سونیا گاندھی کو پیش کیا ہی تھا کہ مانوں پنڈارا باکس کھل گیا۔

کچھ لوگوں نے اسے لال کرشن اڈوانی کی ری پیکجنگ کہا، کسی نے جھوٹ کا پلندہ اور کسی نے ان کی شدت پسند شبیہ کو سدھارنے کی سعئي لاحاصل سے تعبیر کیا۔ لیکن خود اڈوانی جی نے رسم اجراء کے دوران اقتباسات پڑھتے ہو‎ۓ یہ کہا کہ وہ اس کے ذریعے نوجوانوں تک پہنچنا چاہتے ہیں۔
اس کتاب میں انہوں نے بابری مسجد انہدام پر تاسف کا اظہار بھی کیا ہے۔ اگر وہ آنے والے انتخابات میں اکثریت میں آجاتے ہیں تو سادہ دل ہندوستانی ان کی اس کتاب کو کہیں مستند تاریخی دستاویز نہ مان لیں۔