Sunday, July 20, 2008

1857 and national newspapers

1857 की क्रांति और देसी अख़बार

आज भारत के पहले स्वतंत्रा संग्राम के 150 वर्ष बाद उस ज़माने के अख़बारों की कुछ एक प्रतियां राष्ट्रीय संग्राहाल में मिल जाती हैं जिनकी आज की पत्रकारिता के मुक़ाबले कोई हैसियत नहीं लेकिन उनसे सरकार आज से कहीं ज़्यादा घबराती थी और उनके मालिकों और संपादकों पर तरह तरह के संकट मंडलाते रहते थे.

चुनानचे दिल्ली से निकलने वाले पहले अख़बार दिल्ली अख़बार, जिसे बाद में दिल्ली उर्दू अख़बार कहा गया और फिर बहादुरशाह ज़फ़र के नाम पर इसका नाम अख़बारुज़्ज़फ़र रख दिया गया उसके संपादक मौलवी मोहम्मद बाक़र को ग़द्दारी के जुर्म में फांसी दे दी गई, उनके बेटे और उर्दू के महान लेखक मोहम्मद हुसैन आज़ाद को भी क़ैद सुनाई गई लेकिन वे किसी तरह अपनी जान बचाकर भागे. भागते समय उनके साथ कुल जमा पूंजी उनके उस्ताद और प्रसिद्ध शायर ज़ौक़ का दीवान था.

इसी प्रकार सय्यद जमीलुद्दीन के संपादन में निकलने वाले सादिक़ुल-अख़बार ने क्रांतिकारियों की सराहना की, उनके विरुद्ध बग़ावत का मुक़दमा चला और उन्हें तीन साल क़ैद की सज़ा सुनाई गई. दूरबीन और गुलशने-नौबहार अख़बारों पर भी मक़दमे चलाए गए और प्रेस को ज़ब्त कर लिया गया

जहां 1857 की क्रांति के कई और कारण थे वहीं इस में अख़बारों की भी अहम भूमिका रही है हालांकि इतिहासकारों ने हमेशा इसकी अंदेखी की.

भारतीय साहित्य एवं संस्कृति में अत्यधिक रूची रखने वाले फ़्रांसीसी लेखक ग्रेसीन द तासी ने 1857 के विद्रोह का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि उन अशुभ कारतूसों के वित्रण के अवसर पर हिंदुस्तानी अख़बारों ने जो पहले से हि भड़काने में लगे हुए थे हिंदुस्तानियों को कारतूसों को हाथ लगाने से इनकार करने के लिए तय्यार किया और उन्हें यह विश्वास दिलाया कि अंग्रेज़ हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाना चाहते हैं.

इसी संदर्भ में अंग्रेज़ी में निकलने वाले अख़बार लाहोर क्रॉनिकिल में जूलाई 11, 1857 में यह लिखा गया कि भारतीय भाषा में निकलने वाले अख़बार ग़द्दारी और विघटनकारी गतिविधियों में शामिल हैं.

मारग्रेटा बार्न्स ने अपनी किताब द इंडियन प्रेस में ग़दर और उसके बाद वाले अध्याय में लिखा है कि हाथों से लिखे जाने वाले ये अख़बार बहुत ही संवेदनशील और उत्तेजक हैं और इनका क्षेत्र भी बहुत बड़ा है.

लाहोर से निकलने वाले अंग्रेज़ी के अख़बार द पंजाबी के अंग्रेज़ संपादक ने 28 मार्च 1857 को लिखा कि बहुत से देसी अख़बार हमारी सेना के देसी सैनिकों में बांटे गए हैं. इसमें से एक देसी अख़बार की ओर हमारा ध्यान दिलाया गया जो हमारे देसी सैनिक पढ़ते हैं और उसमें बैरकपूर के हंगामों की ख़बरें इस प्रकार प्रकाशित हैं जिन से यहां के सैनिकों में आक्रोश पैदा होने की आशंका होती है.

एक मौक़े पर लार्ड कैनिंग ने कहा था, देसी अख़बारों ने समाचार देने की आड़ में देसी लोगों में बहुत ही हिम्मत के साथ विद्रोह की भावना भर दी है. यह काम बहुत चालाकी के साथ किया गया है.

चुनांनचे, हम देखते हैं कि 1835 ई. में भारतीय भाषा में सिर्फ़ छे अख़बार निकलते थे जो 1850 में बढ़कर 28 हो गए और 1853 तक यह संख्या 37 तक पहुंच गई. 1854 में उत्तरी भारत से ही 34 अख़बार निकलते थे, आगरा से 7, बनारस से 7, दिल्ली से छे, मेरठ से दो, लाहोर से दो, मुलतान से दो, बरेली, सरधना, कानपूर, मिर्ज़ापूर, इंदौर, लुधियाना, भरतपूर, अमृतसर, मुलतान और और सियालकोट से एक एक अख़बार निकलते थे.

उसी ज़माने में कलकत्ता से 16 अख़बार निकलते थे जिन्में पांच उर्दू और फ़ारसी भाषा में थे, उर्दू सबसे ज़्यादा लिखी पढ़ी जाने वाली भाषा थी लेकिन 1857 की क्रांति के दौरान सरकारी अख़बारों को छोड़कर बाक़ी सारे अख़बार बंद करवा दिए गए.

क्रांतिकारी पत्रकारिता का इतिहास


क्रांतिकारी पत्रकारिता पर लिखते हुए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की यह पंक्तियां सहसा याद आ जाती हैं:

निसार मैं तरी गलियों के ऐ वतन कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले जिस्मो-जां बचा के चले

हालांकि 1857 की क्रांति के समय भारतीय अख़बारों की उमर कोई ज़्यादा नहीं थी लेकिन इसके छोटे से इतिहास को देखा जाए तो यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इसके मिज़ाज में विद्रोह शुरू से ही था.

भारत में अंग्रेज़ पत्रकारों ने ही इसकी नींव रखी और ईस्ट इंडिया कंपनी के ज़ुल्म, अन्याय और लूट-खसोट का विरोध किया. कम्पनी के एक कर्मचारी विलियम बोल्टस ने सबसे पहले कम्पनी बहादुर के अधिकारियों की हेरा-फेरी, ज़ुल्म और अन्याय का भांडा फूड़ने के लिए सितम्बर 1766 को कलकत्ता के काउंसिल हाउस के गेट पर एक धोषणापत्र चिपकाया जिससे भयभीत होकर उच्च अधिकारियों ने 18 अप्रैल 1768 में उन्हें देश छोड़ने का आदेश दिया. वह वहां भी चुप नहीं बैठे और पलासी युद्ध के बाद भारत में कम्पनी के अत्याचारों को दिखाने के लिए कंसीड्रेशन ऑन इंडियन अफ़ेयर्स नामी किताब लिखी.

26 जनवरी 1770 में जब जेम्स आगस्तस हिक्की ने भारत का सबसे पहला अख़बार बंगाल गज़ट ऑफ़ ऐडवरटाईज़र प्रकाशित करना शुरू किया तो उन्हें प्रारंभ से ही गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के ग़ुस्से का शिकार होना पड़ा. अपनी साफ़गोई के लिए उन्हें न सिर्फ़ क़ैद झेलनी पड़ी बल्कि उन्हें देश निकाला भी मिला. इसके बाद पत्रकारों को देश से निकाल बाहर करने का एक सिलसिला चल निकला.

बंगाल जरनल और इंडियन वर्लड के मालिक और संपादक विलियम डॉन को भी देश निकाला मिला, उसके बाद अंग्रेज़ी के अख़बार बंगाल हरकारो के संपादक चार्लस मैकलीन को भी अंग्रेज़ विरुद्ध गतिविधियों के लिए देश-निकाला मिला लेकिन उन्होंने इंग्लैंड पहुंच कर लॉर्ड वैलेज़ली के विरूद्ध ऐसा अभियान चलाया कि लार्ड वैलेज़ली को अपने पद से इस्तेफ़ा देना पड़ा.

उसके बाद एशियाटिक मिरर के संपादक को कंपनी और देसी राज्यों की तुलना करने के इल्ज़ाम में 1799 में देश-निकाला मिला. इसी दौरान 19वीं शताब्दी के आरंभ में कलकत्ता जरनल के संपादक जेम्स सिल्क बकिंघम, बंबई गज़ट के संपादक फ़ेयर और कल्कत्ता जरनल के दूसरे संपादक संडेज़ को भी देश-निकाला मिला.

इसी परिदृष्य में 14 मार्च 1823 में भारत में पहला प्रेस आर्डीनेन्स जारी किया गया जिस के ख़िलाफ़ राजा राम मोहन राय ने अपने अख़बार मिरातुल-अख़बार में न सिर्फ़ इसकी भर्त्सना की बलकि सुप्रीम कोर्ट में इसके ख़िलाफ़ अपील भी की जिसे ख़ारिज कर दिया गया. फिर उन्होंने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक अपील बर्तानिया के बादशाह के नाम लिख भेजा जिसमें कहा गया था कि इस आर्डीनेन्स को फ़ौरन ख़त्म किया जाए वरना हिंदुस्तान की प्रजा अत्याचारी शासक के हाथों तबाह हो जाएगी. उनकी यह अपील प्रिवी काउंसिस से भी ख़ारिज कर दी गई जिसके विरोध में उन्होंने अपने अख़बार मिरातुल-अख़बार को बंद करने का फ़ैसला किया.

यही वह परंपरा थी जो 1857 में भी अपने काम कर रही थी और दिल्ली से निकलने वाले सादिक़ुल अख़बार ने बग़ावत के दौरान दिल्ली की ख़बर को इस प्रकार प्रकाशित किया.

कुछ अहले रोम ने किया न शाहे-रूस ने
जो कुछ किया नसारा से सो कारतूस ने

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