Sunday, July 20, 2008

Ghalib captures 1857

1857 की कहानी मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़बानी

अनुवाद करना तो दूर की बात है एक शायर दूसरे शायर की सराहना भी मुश्किल से ही करता हैं. लेकिन मश्हूर समकालीन शायर मख़मूर सईदी ने उर्दू के सबसे बड़े शायर ग़ालिब की किताब दस्तंबू और उनके पत्रों के हवाले से 1857 की कहानी को ब्यान किया है. 90 पृष्ठ की इस किताब में उन्होंने 18 पृष्ठ की भुमिका भी लिखी है जिसमें उन्होंने दस्तंबू के हवाले से ग़ालिब पर की जाने वाली आलोचनाओं का जवाब और जवाज़ (औचित्य) पेश किया है.

इस किताब के तीन भाग हैं एक में भुमिका है दूसरा भाग ग़ालिब कि किताब दस्तंबू का अनुवाद है और तीसरा भाग ग़ालिब के वे पत्र हैं जो उन्होंने अपने जानने वालों को लिखे हैं. भुमिका में मख़्मूर सईदी ने लिखा है :

दस्तंबू में लिखी कुछ घटनाओं के आधार पर कुछ लोगों ने ग़ालिब पर अंग्रेज़-दोस्ती का इल्ज़ाम लगाया है लेकिन जिस चीज़ को लोगों ने अंग्रेज़-दोस्ती का नाम दिया है वह दरअसल मिरज़ा ग़ालिब की इंसान-दोस्ती थी. बाग़ी भड़के हुए थे इस लिए बहुत से बेगुनाह अंग्रेज़ मर्द औरतें भी उनके ग़ुस्से का निशाना बने. मिर्ज़ा ग़ालिब ने उन बेगुनाहों के मारे जाने पर दुख प्रकट किया लेकिन उन्होंने उस दुख पर भी परदा नहीं डाला जो अंग्रेज़ों की तरफ़ से बेक़सूर हिंदुस्तानी नागरिकों पर ढ़ाए गए.

अगर ग़ालिब की किताब को देखें तो यह साफ़ हो जाता है कि उन्होंने कहीं कहीं बात छुपाई भी है और कहीं कहीं झूठ भी बोल दिया है. मिसाल के तौर पर ग़ालिब ने लिखा है कि उनका भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ पांच दिन बुख़ार में रहने के बाद मर गया लेकिन मख़्मूर सईदी का कहना है कि वे अंग्रेज़ों की गोली का शिकार हुए थे.

ग़ालिब की किताब ख़ुदा की तारीफ़ से शुरू हुई है और इसमें बग़ावत को बेकार साबित करने की कोशिश है और नक्षत्रों के एक दूसरे के घरों में प्रवेश कर जाने को इस उथल-पुथल का कारण माना है. लेकिन वह लिखते हैं शुक्र और वृहस्पति को लाभ पहुंचाने और मंगल और शनि को नुक़सान पहुंचाने पर अगर थोड़ा मोड़ा अधिकार हो तो हो लेकिन ज्ञानी अच्छी तरह जानता पहचानता है कि बरबादी और बरकत किसकी तरफ़ से हैं.

11 मई 1857 से 31 जुलाई 1858 की घटनाओं पर आधारित इस किताब में ग़ालिब ने अपने गद्य का झंडा गाड़ने का दावा भी किया है और कहा है कि यह किताब पुरानी फ़ारसी में लिखी गई है और इसमें एक शब्द भी अरबी भाषा का नहीं आने दिया गया है सिवाए लोगों के नामों के क्योंकि उन को बदला नहीं जा सकता था. उन्होंने इसका नाम दस्तंबू इस लिए रखा है कि यह लोगों में हाथों हाथ ली जाएगी जैसा कि उस ज़माने में बड़े लोग ताज़गी और ख़ुशबू के लिए दस्तंबू अपने हाथों में रखा करते थे.

ग़ालिब के नज़दीक पीर यानी सोमवार का दिन बड़ा मनहूस है, बाग़ी सोमवार को ही दिल्ली में दाख़िल हुए थे, सोमवार के दिन ही उनकी हार शुरू हुई थी, जब गोरे सिपाही ग़ालिब को पकड़ कर ले गए वह भी सोमवार था और फिर जिस दिन ग़ालिब के भाई का देहांत हुआ वह भी सोमवार था. ग़ालिब ने इस बारे में लिखा है :

19 अक्तूबर को वही सोमवार का दिन जिसका नाम सपताह के दिनों कि सूचि में से काट देना चाहिए एक सांस में आग उगलने वाले सांप की तरह दुनिया को निगल गया

ग़ालिब ने अपने भाई की मौत के बारे में चाहे झूठ ही बोला हो लेकिन उन्होंने अंग्रेज़ अफ़्सरों और फ़ौजियों की रक्तपाति प्रतिकृया पर पर्दा नहीं डाला और साफ़ साफ़ लिख गए :

शाहज़ादों के बारे में इससे अधिक नहीं कहा जा सकता कि कुछ बंदूक़ की गोली का ज़ख़्म खा कर मौत के मुंह में चले गए और कुछ की आत्मा फांसी के फंदे में ठिठुर कर रह गई. कुछ क़ैदख़ानों में हैं और कुछ दर-बदर भटक रहे हैं. बूढ़े कमज़ोर बादशाह पर जो क़िले में नज़र बंद हैं मुक़दमा चल रहा है. झझ्झर और बल्लभगढ़ के ज़मीनदारों और फ़र्रुख़ाबाद के हाकिमों को अलग-अलग विभिन्न दिनों में फांसी पर लटका दिया गया. इस प्रकार हलाक किया गया कि कोई नहीं कह सकता कि ख़ून बहाया गया.... जानना चाहिए कि इस शहर में क़ैदख़ाना शहर से बाहर है और हवालात शहर के अंदर, उन दोनों जगहों में इस क़दर आदमियों को जमा कर दिया गया कि मालू पड़ता है कि एक दूसरे में समाए हुए हैं. उन दोनों क़ैदख़ानों के उन क़ैदियों की संख्या को जिन्हें विभिन्न समय में फांसी दी गई यमराज ही जानता है...

ग़ालिब को मालूम था कि उनकी यह किताब छप सकती है इस लिए उन्होंने इस में मसलेहत से काम लिया और कुछ चीज़ें छिपा गए. लेकिन 1857 के आख़री दिनों में उन्होंने जो पत्र लिखे उससे इसकी भरपाई हो जाती है. यानी यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं.

जब उनके ख़त को छापने की बात आई तो ग़ालिब ने यह कहते हुए हिचकिचाहट दिखाई कि इस में उन्होंने अच्छी भाषा नहीं लिखी है और यह कि वह बस यूं ही हैं हालांकि अपने एक ख़त में उन्होंने दावा किया था कि उन्होंने ख़त लिखने कि उस शैली का अविष्कार किया है जिस में पत्र लेखन को संवाद बना दिया है.

इस किताब में 1857 की घटनाओं के बारे में लिखे ग़ालिब के पत्रों को शामिल किया गया है जिसमें दिल्ली की बर्बादी का अधिक वर्णन. महेश दास जी ने शहर में मुसलमानो के लिए जो किया उसके बारे में मिर्ज़ा ग़ालिब अपने एक पत्र में लिखते हैं.

इंसाफ़ से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता और जो देखा बिन कहे रहा नहीं जा सकता, इस नेक तबियत ने शहर में मुसलमानों के पुनर्वास के सिलसिले में कोई कसर नहीं उठा रखी.

दिल्ली की बर्बादी पर ग़ालिब के पत्रों के कुछ अंश :

मियां हक़ीक़ते-हाल इस से ज़्यादा नहीं कि अब तक जीता हूं. भाग नहीं गया. निकाला नहीं गया. लुटा नहीं. किसी मुहकमे में बुलाया नहीं गया. पूछ-ताछ नहीं हुई. आइंदा देखिए क्या होता है. (21 दिसंबर 1857)

इंसाफ़ करो लिखूं तो क्या लिखूं ? कुछ लिख सकता हूं या लिखने के क़ाबिल है ? तुमने जो मुझको लिखा तो क्या लिखा, और अब जो लिखता हूं तो क्या लिखता हूं ? बस इतना ही है कि अब तक हम तुम जीते हैं. ज़्यादा इससे न तुम लिखोगे न मैं लिखुंगा. (26 दिसंबर 1857)

अपने मकान में बैठा हूं. दरवाज़े से बाहर नहीं निकल सकता, सवार होना और कहीं जाना तो बड़ी बात है. रहा ये कि कोई मेरे पास आवे, शहर में है कौन जो आवे. घर के घर बे-चिराग़ पड़े हैं. मुजरिम सियासत पाते जाते हैं....

मीर मेहदी के नाम लिखे ख़त में ग़ालिब लिखते हैं. क़ारी का कुआं बंद हो गया. लाल डुगी के कुएं एक साथ खारे हो गए. ख़ैर खारा पानी ही पीते, गर्म पानी निकलता है. परसों मैं सवार होकर कुएं का हाल मालूम करने गया था. जामा मस्जिद से राज घाट के दरवाज़े तक बे-मुबालग़ा (बिना अतिश्योक्ति) एक ब्याबान रेगिस्तान है... याद करो मिर्ज़ा गौहर के बाग़ीचे के उस तरफ़ को बांस गड़ा था अब वह बाग़ीचे के सेहन के बराबर हो गया है.... पंजाबी कटरा, धोबी कटरा, रामजी गंज, सआदत ख़ां का कटरा, जरनैल की बीबी की हवेली, रामजी दास गोदाम वाले के मकानात, साहब राम का बाग़ और हवेली उनमें से किसी का पता नहीं चलता. संक्षेप में शहर रेगिस्तान हो गया.... ऐ बन्दा-ए-ख़ुदा उर्दू बाज़ार न रहा, उर्दू कहां, दिल्ली कहां? वल्लाह अब शहर नहीं है, कैम्प है, छावनी है. न क़िला, न शहर, न बाज़ार, न नहर.

एक और ख़त में लिखते हैं. भाई क्या पूछते हो, क्या लिखूं ? दिल्ली की हस्ती कई जश्नों पर थी. क़िले, चांदनी चौक, हर रोज़ का बाज़ार जामा मस्जिद, हर हफ़्ते सैर जमना के पुल की, हर साल मेला फूल वालों का, ये पांचों बातें अब नहीं. फिर कहो दिल्ली कहां....?”

इन सब को देख कर यह विडंबना सामने आती है कि 1857 की घटना पर ग़ालिब जैसे महान कवि के हाथों दिल्ली का ब्यान छपा लेकिन उस भाषा में नहीं जो आज के आम लोगों की भाषा है. अगर नेश्नल बुक टरस्ट इसे हिंदी में भी प्रकाशित करे तो यह भारत के पहले स्वतंत्राता संग्राम की 150वीं बरसी पर आने वाली पीढ़ी के लिए एक अनमोल तोहफ़ा होगा.

अंत में यह कहना ग़लत नहीं होगा कि मख़्मूर सईदी ने अपने अनुवाद और ग़ालिब के पत्रों को एक कड़ी में सजाने में अपने हुनर का जौहर दिखाया है जो कि एक शायर ही कर सकता था.

1857 की कहानी मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़बानी
(दस्तंबू और ग़ालिब के ख़तूत के हवाले से)
लेखक मख़्मूर सईदी
प्रकाशक नेश्नल बुक टरस्ट
मूल्य 35 रू.

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