Friday, July 18, 2008

Allahabad: The Confluence of 1857


अलाहाबाद स्वतंत्रा संग्राम का भी संगम रहा

भारत के स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल 10 मई को मेरठ से बजा और समय के साथ साथ उसकी गूंज और भी जगह से सुनाई देने लगी, अलाहाबाद में यह बिगुल 6 जून को फूंका गया.

उस समय यहां अंग्रेज़ सिपाही नहीं थे कुछ गोरे अफ़सरों के नेतृत्व में छठी देसी पैदल पलटन और फ़ीरोज़ पूर की पांच कंपनियां मौजूद थीं और क़िले और असलहे-ख़ाने की सुरक्षा के लिए फ़िरोज़पूर रेजिमेन्ट के 400 सिख सिपाही और देसी पलटन के 80 जवान तैनात थे.

बग़ावत की ख़बरों से चिंतित होकर अंग्रेज़ अफ़सरों ने 60 पेंशन पाने वाले गोरे तोपचियों और 200 सिख सिपाहियों को क़िले के अंदर बुला लिया.

सुन्दर लाल ने अपनी किताब भारत में अंग्रेज़ी राज्य में लिखा है कि अगर क़िले के सिख उस समय मुजाहिदों का साथ दे जाते तो आधे घंटे के अंदर इलाहाबाद का क़िला और अंदर का सारा सामान मुजाहिदों के हाथों में आ जाता, मगर ऐसा न हुआ और अंग्रेज़ी झंडा इलाहाबाद क़िले पर लहराता रहा.

इलाहाबाद के संग्राम के सूरमा मौलवी लियाक़त अली अपनी बस्ती से 7 जून को इलाहाबाद पहुंच गए और ख़ुसरो बाग़ को उन्होंने अपना मुख्याल्य बनाया. उसी रोज़ दरबार लगा जिसमें 101 तोपों की सलामी दी गई, 21 तोपों की सलामी से मौली लियाक़त अली के नेतृत्व का एलान किया गया.
मौलीवी लियाक़त अली जानते थे कि अंग्रज़ आसानी से हार नहीं मानेंगे इस लिए वह उस रात की हार के बाद अपनी ताक़त बढ़ाने में लग गए और जल्द ही उनकी फ़ौज में बड़ी संख्या में वॉलनटियर भरती हो गए.

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